सन्त शिरोमणि पल्टू साहब

भारत की वसुंधरा अनेक शूरवीरो , राजनेताओ, वैज्ञानिकों, महात्माओं, सन्तो, सिद्धो, तत्व-वेत्ताओ, महर्षियों, योगियों, संयाशियों, ऋषियों तथा योगवातरी महापुरुषों की कर्मभूमि तथा साधना स्थल रही है | यहाँ की धरा-धाम पर कर्मयोग ज्ञान तथा भक्ति की त्रिवेणी अजस्त्र प्रवाहित होकर अक्षय आनंद का मार्ग प्रशस्त करती रही है | यहाँ के मनीषियों ने भोग-जीवन के मूलाधार प्रेय मार्ग को तिलांजलि देकर समाज एवं राष्ट्र के त्यागमय जीवन-दर्शन श्रेय मार्ग का वरण कर अपना सर्वस्व बलिदान किया है | ऐसे महान सन्तो में प्रात: स्मरणीय पलटू का नाम सर्वोपरी है | सन्त पल्टू साहब अपने ज्ञान , साधना भक्ति तपस्या और निश्छल वाणी से जगत क सभी सन्तो में कर्मठ , पूर्ण सत्यानिष्ट , अलौकिक और वरेण्य माने जाते रहे है | इसी कारण समग्र संसार उन्हें सम्मान देता है तथा आदरपूर्वक पूजता है |

उदभद

सन्त पल्टू साहब का प्रादुर्भाव उत्तर प्रदेश राज्य के अयोध्या अंचल के नग जलालपुर नामक नगर में एक मध्यदेशीय वैश्य परिवार में संवत 1780 विक्रमीय में हुआ था | इनके पिता का नाम श्रीयुत राम प्रसाद तथा माता का नाम श्रीमती रामदेवी था | माननीय राम प्रसाद का परिवार सात्विक था | इनके घर में पूजा-पाठ , यज्ञ - हवन, योग साधना का वातावरण सदैव विधमान रहता था | अतः शिशु रामलाल पर परिवार क परिवेश एवं संस्कारपूर्ण जीवन का उत्तम प्रभाव पड़ा था | श्री रामलाल विलाक्षण प्रतिमा क धनी थे | बड़े होने पर वे गाँव क विद्यालय में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त किये और पिता श्री के कार्यों में सहयोग करने लगे | कालान्तर में उनकी भेंट योगिशवर गोविन्द साहब से हो गई | महान तपस्वी गोविन्द साहब ने इनकी यौगिक क्रियऔ , स्वभाव और सेवाओ से प्रसन्न हो इन्हें शिष्य बना लिया |
योगिशवर गोविन्द के सानिध्य में श्री रामलाल अपने योग-साधना के मार्ग पर दैनदिन अग्रसर होते रहे | वे लक्ष्य की प्राप्ति हेतु निरंतर गतिशील रहे , सदैव पराक से प्रत्यक में प्रतिष्टित रहे , उनकी बौध-वृत्ति प्रत्येक में निहित रही | श्री रामलाल की योग की प्रति अगाध श्रद्धा, इश्वरानुभुती के प्रति अन्यतम अनुराग तथा अन्तर्मुखी जीवन से योगिशवर गोविन्द साहब श्री राम लाल के सम्बन्ध में कहने लगे की श्री राम लाल में तो अद्भुत परिवर्तन हो गया है , वे अन्तर्मुखी हो गए हैं , वे संसार से विमुख हो गए हैं | अतः इनका नाम राम लाल के स्थान पर पल्टू होना चाहिए | इश्वरानुरक्त संसार से परे साधक के लिए यही नाम उपयुक्त है | उसी समय से श्री रामलाल श्री पलटू साहेब के नाम से लोक-प्रसिद्ध हो गये |

तात्विक विचार

परम साधक पल्टू साहब अपने अध्यात्मिक विचारो को प्रकट करते हुए कहते है की "परमात्मा तत्व को अन्तः मन में खोजो, जो समष्टि में है वही ब्यष्टि में है | ब्यष्टि और समष्टि के पार्थक्य का विभेद सत्तागत नहीं हो सकता | अंश और अंशी के बीच माया का आवरण अविछिन्न करना ही स्व-स्वरुप में प्रवेश करना है | यही बाहर से भीतर की ओर जीव का प्रस्थान है, यही पराक् से प्रत्यक की और यात्रा है, यही बहिराकाश से आत्मा की और उड़ान भरना है | उसी प्रकार के छोटी बड़ी उड़ानों से जीव चिर शांति में समाविष्ट होता है | जहा न कोई हलचल है न कोई उथल पुथल है न कोई अंधड़ और तूफान है " | इस परिपेक्ष में सन्त पल्टू साहब की वाणी पठनीय है -

" पूरण ब्रह्म रहे तुझ ही में , तू क्यों फिरे उदासी |
पल्टू दास उलटी के ताको , तू ही हो अविनासी ||"

सन्त पल्टू साहब कहते हैं की इस संसार में मानव जन्म भाग्योदय के चरमावस्था में प्राप्त होता है | अत: हमें सद्कर्म करना चाहिए , हमें विषयों में भटकना नहीं चहिये | रूप, रस, गंध, स्पर्श तथा शब्द इन विषयों में सांसारिक लोग सुख की अनुभूति करते हैं, किन्तु यह वाश्ताविक सुख नहीं है, यह सुख का सुखाभास मात्र है | इन सुखो की परिणिति दुःख में होता है | संसार सप्तविध दुःख संभिन्न है | इसकी ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जो सबको सुख ही देती हो | परमात्मा और परमात्मा का लोक ही ऐसा है जहाँ केवल सुख ही सुख है वहां दुःख के दर्शन भी नहीं होते हैं | वह परम सुख , निखिल आनंद की परिधि है | अतः पल्टू साहब कहते है की मन को विषयों की और से योग द्वारा नियंत्रित कर परमेश्वर को अन्त:करण में ढूढना चहिये, उनके नाम रूप को पहचानना चहिये |

नामरूप परमेश्वर

सिद्ध सन्त पल्टू साहब कहते है की नाम तो वस्तुतः अनाम है | उस नाम को न लिखा जा सकता है और न पढ़ा जा सकता है | उसका न कोई निश्चित रूप है और न कोई रेखा है | उसकी किसी से तुलना भी नहीं की जा सकती है | उस नाम रूप परमात्मा को, जो हम सभी के अन्तः करण में अन्तर्यामी रूप में विधमान है, उसे न तो अन्तार्नेत्रों से देखा जा सकता है |
इस तथ्य को सन्त पल्टू साहब के शब्दों में अवलोकन करे -

" जो कोई चाहे नाम तो अनाम है |
लिखन पढन में नाही निअच्छर काम है ||
रूप कहो अनरूप अनरेख ते |
अरे हाँ पल्टू ! गैव दृष्टी से सन्त नाम वह देखते ||

सन्त पल्टू साहब नाम की महिमा को स्पष्ट करते हुए कहते है की नाम स्वरुप परमात्मा का जाप करने वाले को परमात्मा की भक्ति का आधार प्राप्त हो जाता है, वे विश्व की चिन्ताओ से बच जाते है, किन्तु परमात्मा की भक्ति से विरत रहने वाले समग्र सांसारिक जन चिंता रूपी चिता की अग्नि से भस्मसात हो जाते हैं |
इस कथन को पल्टू साहब की वाणी में अवलोकन करें -

"पल्टू बचते सन्त जन , जेकरे नाम आधार ,
चिंता रूपी अग्नि में, जरै सकल संसार |"

अतः संसराग्नी से बचने के लिए परमात्मा के नाम को आधार बनाना आवश्यक है |

सगुण एवं निर्गुण भक्ति धारा

महात्मा पल्टू साहब एक समन्वयवादी सन्त थे | वे ईश्वर के सगुण एवं निर्गुण दोनों प्रकार के स्वरूपों की उपासना में विश्वास करते थे | वे कहते थे की सगुण एवं निर्गुण दोनों परमात्मा के स्वरुप हैं | परमात्मा के इन दोनों स्वरूपों में किसी प्रकार का न भेद है और न विरोध | वे परस्पर एक दुसरे के सम्पूरक है | अतः भक्तो , साधको या समाज क लोगो के लिए आवश्यक है की वे इन दोनों स्वरूपों की वास्तविकता को समझे, उस पर चिंतन करे तथा वस्तुस्थिति को समझ कर उसके अनुरूप आचरण करे | विचारशील सन्त , साधक या भक्त परमेश्वर के इन दोनों स्वरूपों को सामान रूप से उपास्य मानते हैं | परमेश्वर समग्र कल्याणकारी गुणों का एक मात्र आश्रय एवं श्रोत है | परमात्मा में कोई अकल्याणकारी गुण है ही नहीं | यही परमात्मा का शुभ सगुण रूप है | इसी कारण उसे निखिल कल्याण-गुण-गणाकार कहते है | परमात्मा में कोई भी प्राकृतिक गुण नहीं है | "निर्गता: प्रकृतिका: गुणः यस्मात तत निर्गुनम्" | यह परमात्मा के निर्गुणत्व का अभिप्राय है | पल्टू साहब कहते है कि परमात्मा के सभी गुण दिव्य हैं | ऐसा चिंतन असत्य है कि परमब्रह्म में कोई गुण है ही नहीं | परम ब्रह्म को सभी गुणों से रहित मानने पर कोई उसकी उपासना ही नहीं करेगा | ऐसा समझने पर उसमे उपासयत्व का भी गुण नहीं होगा, उसमे न किसी पर कृपा करने की गुणवत्ता होगी और न किसी को अपनाने का गुण होगा | अतः यही स्वीकार करना चाहिए कि निर्गुण ब्रह्म का अभिप्राय यह है कि उसमे कोई प्राकृतिक गुण है ही नहीं | साधक का कल्याण निर्गुण ब्रह्म का निसर्गजात व्यवहार एवं कर्म है |
प्रख्यात सन्त श्रीत्संक मुनी निर्गुण शब्द का अर्थ करते हुए कहते हैं -

"दुरे गुणास्त्व तु सत्वरजस्त्मांसी ,
तेन त्रयी प्रथयति त्वयि निर्गुणत्वम् "

हे प्रभु ! आप में प्राकृतिक सत्व, रजस् एवं तमस् इन तीनो गुणों का अभाव है | अतः वेद आपको निर्गुण बताते हैं | सन्त पल्टू साहब परमात्मा के सगुण एवं निर्गुण दोनों स्वरूपों को समाज के सतत विकास, व्यापक कल्याण आनन्दातिरेक तथा शांति के लिए आवश्यक मानते हैं | वे परमेश्वर के दोनों स्वरूपों की भक्ति एवं साधना पर बल देते हैं |

सर्व सेवा भाव

सन्त पल्टू साहब सत्य एवं सोंदर्य से अनुप्रणित शिव शक्ति के उदघोषक थे | उनके आस्था का केंद्र सत्यम , शिवम् , सुन्दरम था | वे आस्तिक-नास्तिक, गरीब-अमीर , मंदिर-मस्जिद , प्रबल-दुर्बल के मध्य विभाजक रेखा नहीं खिचे, उनका हृदय सभी के प्रति सेवा भाव से उद्धेलित था | आत्मा की ध्वनी श्रवण कर सभी की सेवा हेतु वे तत्पर हो जाते थे | महात्मा पल्टू साहब एक ऐसे सामंजस्य के केंद्र बिंदु पर खड़े थे , जहाँ से निर्गुण सगुण की दो धाराएँ उदगिरित होकर एक साथ मानव सेवा में पगी थी, आस्तिकता और नास्तिकता परस्पर भेद भाव त्याग कर सहधर्मी सहस लोक कल्याण में संलग्न थी , सम्प्रदिकता जहाँ व्यथित हो सहिष्णुता का निनाद कर रही थी तथा पाखंड जहाँ मर्दित हो अपनी जीवन की अंतिम घड़ियों की प्रतीक्षा कर रहा था | सन्त पल्टू साहब साम्प्रदायिकता से ऊपर उठे हुए , पाखंड से मुक्त , समन्वयवादी , एक अक्खड़ साहसी सन्त थे , जिनके अंत करण में मानवता के प्रति करुणा की अजस्त्र धारा प्रवाहित हो रही थी , वे उसी करुणा से द्रवीभूत होकर आत्मा की पुकार पर सभी की सेवा करते थे, किसी की प्रशस्ति या निंदा नहीं करते थे |
उनके संप्रदाय रहित मानवीय दृष्टि का उन्ही के शब्दों में अवलोकन करें -

"हिन्दू का तू गुरु हैं , मुस्लमान का पीर |
काफ़िर का चौरंग हूँ , पल्टू दास फकीर" ||
"हिन्दू पुजे देवहरा , मुस्लमान मस्जिद |
पल्टू पूजे आत्मा , जो खावे दीद वदीद" ||

असाम्प्रदायिक दृष्टि

सन्त पल्टू साहब मानवतावाद के पोषक सन्त थे | वे राम और द्वेष से ऊपर उठकर साम्प्रदायिक सदभावना पर बल देते थे | उनकी धारणा थी की एक ही परमात्मा सम्पूर्ण जगत में व्याप्त है | ऐसी दसा में किसी से राग द्वेष रखने की आवश्यकता नहीं है जब सभी का परमेश्वर एक है | वही हिन्दू तथा मुस्लमान दोनों में परमात्मा के रूप में व्याप्त है, ऐसी दसा में द्वंद किस हेतु तथा किसके लिए | द्वंद का आधार प्रमाणिक और ठोस होना चाहिए |

"एक कोहार गढ़ा दुई बर्तन , दोनों एकै मिटटी |
पल्टू दास बोलता एकै, दुई धोखे की टट्टी ||
जो हिन्दू सो मुसलमान में ,सब मिलि करहु विचार हो|
पलटू दास दोउ के बीचे, साहेब एक हमार हो |
चार बरन की मीटिके, भक्ति चलाया भूल |
गुरु गोविन्द के बाग में ,पलटू फुला फुल" ||

सन्त पलटू साहब कहते है की हिन्दू और मुसलमान के मध्य भेद भावना निराधार है | कुम्भकार के मिट्टी के विविध बर्तनों के सहश हिन्दू और मुसलमान एक ही प्राकृतिक उपादानो से बने है | दोनों के भीतर एक ही परमात्मा की व्याप्ति है | इस शरीर के भीतर जिस प्रकार आत्मा निवास है उसी प्रकार आत्मा के भीतर परमात्मा का निवास है | परमात्मा सभी की आत्मा है तथा सब के सब उसके शरीर है अतः सभी को सत्य का चिंतन करना चाहिए | सन्त पलटू ने चारो वर्णों का व्याप्त करने वाली भेद भावना को समाप्त कर भक्ति की जड़ को रोपा है , स्थिर किया है | उनकी एकता का आधार भक्ति है | वे एक मात्र परमात्मा को अपना मानते है तथा परमात्मा की व्याप्ति के कारण समग्र जगत को अपना स्वीकार करते है |

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